एक भाव होता है 'मेरा' दूसरा है 'मेरे लिए' और तीसरा है 'सबके लिए'। 'मेरा' में इंसान केवल अपने बारे में ही सोचता रहता है और ये पक्का कर लेता है कि मेरे पास जो है, वो केवल मेरा है, मैंने कमाया है, मुझे मिला है और इस पर केवल मेरा ही अधिकार है। यह सोच अज्ञानी लोगों की होती है, जो हमारे अहंकार को बनाये रखती है। 'मेरे लिए' अर्थात इंसान सोचता है कि जो भी मेरे पास है, ये मेरा नहीं बल्कि मेरे लिए है। इसका स्वामी मैं नहीं बल्कि ये सब मुझे इस्तेमाल करने के लिए मिला है। वो इसी भाव को मन में रखता है। यह सोच मध्यम दर्जे के लोगों की होती हैं।  
तीसरा भाव है 'सबके लिए' मतलब जो मेरे पास है, वो मेरा ही नहीं और मेरे लिए नहीं, बल्कि सबके लिए है। यह विचार उत्तम दर्जे के इंसानों का होता हैं। इसी को यज्ञ कहा जाता है। जब मन में सबकी भलाई का भाव हो वही यज्ञ है। जो सबका ध्यान रखकर बाद में अपना सोचता है वही श्रेष्ठ इंसान है। इस तरह का यज्ञ अहंकार को गला देता है। ऐसी भावना के साथ साधना करने वाला ब्रह्म को पा लेता है। जो मनुष्य केवल मेरा-मेरा में ही फंसा रहता है, वो ना तो इस जन्म में सुख पाता न ही मरने के बाद परलोक में।